शतपथ ब्रह्मण अप्रसिद्ध मन्त्र 5
१. अन्तरिक्षेणेदं सर्वं पूर्णम्-ताण्डय ब्रा०, १५।१२।२ 5
२. छिद्रमेवेदमन्तरिक्षम्-ताण्ड्य ब्रा० ३।१०।२, २१७३ 5
३. अयम्म आकाशः स मे त्वयि जैमि० ब्रा०, उ०, १२००२ 5
४. अन्तरिक्षमस्याग्नौ श्रितम् । वायोः प्रतिष्ठा-तैत्ति० ब्रा० ३।११।११ 5
५. स एवायं पवते (वायुः),एतदेवान्तरिक्षम् - जैमि० बा० उ०, १।२०१२ 6
६. अयं वै वायुर्योऽयं पवते, एष वा इदं सर्व विविनक्ति यदिदं किञ्च विविच्यते शत० ब्रा०, १।१।४।२२ 6
७. वातो (यजुः, १२६२) हि, वायु:- शत०, ८७।३।१२।। 6
८. यो वै वायुः स इन्द्रः, य इन्द्रः, स वायुः-शत०, ४।१३।१६ 6
६. वायुर्वं जातवेदा वायुहीदं सर्वं करोति यदिदं किञ्चन-ऐ० ब्रा०, २१३४ 6
१०. योऽयं पवते एष धुतानो मारुत:-शत० ब्रा०, ३।१।१६ . . 6
११. वायुर्वं ताक्ष्यः-कौषीतकी ब्रा० ३०५ 7
१२. अयं वै ताक्ष्यों योऽयं पवते एष स्वर्गस्य लोकस्याभिवोढा-ऐ० ब्रा०, ४।२० 7
१३. वायुर्वा आशुस्त्रिवृत्, स एष त्रिषु लोकेषु वर्तते-शत० ब्रा०, ८।४।१।१६ 7
१४. अयं वै वायु: विश्वकर्मा योऽयं पवते । शत० ब्रा० ८।१।१७ 7
१५. एष हीदं सर्वं करोति-शत० ब्रा०, ८११७,८।६।१।१७। 7
१६. वायुर्वे प्राणः-कौषीतकि ब्रा०, ८१४, 7
१७. वायुर्हि प्राणः-ऐत० ब्रा०, २।२६,३।२ 7
१८. वायुर्वं प्राणे श्रितः तैत्ति०, ब्रा०, ३।१०।४।८ 8
१९. मनो हि वायुर्भूत्वा दक्षिणतस्तस्थौ शत० ब्रा०, ८।११११७ 8
२१. सर्वेषामु हैष देवानामात्मा यद्वायु:-शत० ब्रा०, ६।१२।३८ 8
२१. वायुर्वै नभस्पतिः-गोपथ ब्रा०, उ०, ४६ 8
२३. वायुन्तरिक्षस्याध्यक्षः-०, ब्रा०, ३।२।१।३ 8
२४. सोऽयं वायुः पुरुषेऽन्तःप्रविष्टस्त्रेधा विहितः प्राण उदान व्यान इति शत० ३।१२।२० अग्ने: 9
२५. तेजो वा अग्निः-शत० ब्रा०, २०४८ 9
२६. तपो वा अग्निः -शत० ब्रा०, ३।४।३।२ 9
२७. अग्निर्वं देवानां जठरम्-तै० ब्रा०, २।७।१२।३, 9
२८. अग्निर्वं सर्वमाद्यम्-ताण्ड्य ब्रा०, २२।३ 9
२६. अग्नि मियनस्य कर्ता प्रजनयिता च-शत० ब्रा०, ३।४।३।४, 9
३०. इयं पृथिवी वा अग्निः -शत० ब्रा०, ७।३।१२१२, 9
३१. अग्निर्वै देवानां यष्टा-शत ब्रा०, ३।३।७३, 10
३२. अग्निहि देवानां दूत मासीत्-शत० ब्रा०, ११४।११३४ . 10
३३. अग्निरेव देवानां दूत आस-शत० ब्रा०, ३।५।१२१ 10
३४, अग्निहिमस्य भेषजम् -यजु० २३।४६।। तै० ब्रा०, ३९४ 10
३५. अग्निर्वै यशः । आदित्यस्य 10
३६. चक्षुरादित्यः-शत० ब्रा०, ३।२।१३ 10
३७. देवलोको वा आदित्यः—कौषी० ब्रा०, ५७ 11
३८. असौ वा आदित्य एकाकी चरति-ग्रादित्य उदयनीय:-शत०ब्रा० ३१२१३।६ 11
३६. सहस्र हैत आदित्यरश्मयः-जैमि ब्रा० उ०, ११४४।५ 11
४०. सर्पा वा आदित्या:-ताण्ड्य ब्रा०, २५११५४४ सोमस्य 11
४१. सोमो राजा चन्द्रमा:-शत ब्रा०, १०।४।२।१ 11
४२. चन्द्रमा वै सोमः-कोषी० ब्रा०, १६॥५; तै०, १४।१०।७; श० १२।११।२ 11
४३. वृत्रो वै सोम आसीत् --शत० ब्रा०, ३।४।३।१३:३।६।४।२. 12
४४. पितृलोकः सोमः-कौषी० ब्राह्मण, १६५ 12
४५. सोमो रात्रि:-शत० ब्रा०, ३।४।४।१५ 12
४६. परोक्षमिव ह वा एष सोना राजा यन्न्यग्रोध इति-ऐत. ब्रा०, ७।३१ 12
४७. सोमो वै दधि-कौषी० ब्रा०, ६८६ 12
४८. रसः सोमः-शत० ब्रा०, ७।३।११३ 12
४६. तस्मात् सोमो राजा सर्वाणि नक्षत्राण्युपैति-षतिष ब्रा०, ३।१२ 12
५०. अन्तरिक्षदैवत्या हि सोमः--गो. ब्रा० उ०, १४ 13
५१. सोमो वै ओषधीनामधिराज:-कौषी ब्रा०, ४३१२ते ब्रा०, ३।९।१७।१ 13
५२. स वा एष (सूर्यो) ऽपः प्रविश्य वरुणो भवति-कौषी० ब्रा०, १८६. 13
५३. अप्सु वै वरुणः-तै० ब्रा०, १।६।२६ 13
५४. रात्रिर्वरुणः-ऐ० ब्रा०, ४।१०; ता० ब्रा०, २०१०।१० 13
५५. द्यावापृथिवी वै मित्रावरुणयोः प्रियं धाम-ताण्ड्य ब्रा०, १४।२।४ 13
५६. अयं वै (पृथिवी) लोको मित्रोऽसौ (धुलोको) वरुण: शत० ब्रा०, १२।६।१२ 14
१. यह सारा विश्व अन्तरिक्ष से व्याप्त है। .
२. यह छिद्र ही अन्तरिक्ष है।
३. यह जो बाहर आकाश है, वही तुझ मे और मुझ में हैं।
४. अग्नि अन्तरिक्ष तथा वायु के आश्रय पर है
५. जहां जहां वायु चलता है वहां वहां आकाश है।
६. वायु गतिशील है, और वायु ही पृथक् पृथक् पदार्थों को अवस्थित करता है।
७. वात का पर्यायवाची वायु शब्द है।
८. जो वायु है, वह इन्द्र है, जो इन्द्र है, वह वायु है ।
६. वायु का नाम ही जातवेदा है, जो कुछ जगत् में क्रियामय दीख रहा है, वह सब .
वायु का ही माहात्म्य है।
१०. जो यह आकाश में चलता है, वायु है।
११. वायु ही तार्य है।
१२. स्वर्ग लोक का वहन करने वाला ताओं वायु ही है ।
१३. वायु ही तीनों लोकों में व्यापक है, अतः वह पाशुत्रिवृत् है।
१४, वायु ही विश्वकर्मा है।
१५. वायु ही सब कुछ करता है।
१६. यह पवित्र करने वाला वायु है।
१७. वायु ही प्राण है।
१८. प्राणवायु भी वायु के आश्रय पर है।
१६. मन ही प्राण बनकर दक्षिण की ओर खड़ा हुआ था।
२०. तीनों लोक एक प्रकार की नगरी है, उसमें रहने से वायु का नाम पुरुष है।
२१. वायु सब देवताओं की आत्मा है।
२२. वायु ही आकाश का स्वामी है।
२३. वायु ही अन्तरिक्ष का आधार है।
२४. यह एक ही वायु पुरुष में प्राण, उदान तथा व्यान तीन प्रकार का है। अब अग्नि का स्वरूप प्रदर्शित करते हैं
२५. तेजःस्वरूप का नाम अग्नि है ।
२६. तप का नाम अग्नि है।
२७. अग्नि ही देवताओं का जठर है।
२८. अग्नि ही सब कुछ खाने योग्य बनाती है ।
२६. अग्नि ही मैयुन तथा प्रजनन का स्वामी है।
३०. यह दृश्यमान जगत् अग्नि रूप है।
३१. अग्नि ही देवतात्रों का यष्टा है।
३२. अग्नि ही देवताओं का दूत है।
३३. अग्नि ही देवताओं का दूत था।
३४. अग्नि ही गीत की प्रोषधि है। .
३५. शुद्ध अग्नि ही यश है। अब आदित्य का स्वरूप बताया जाता है जाता है
३६. ग्रादित्य चक्षु है ।
३७. ग्रादित्य ही देवलोक है।
३८.अाकाश में जो अकेला चलता है, वह प्रादित्य है जो पूर्व में उदय होता है वह आदित्य है।
३६. ग्रादित्य की असंख्य रश्मियां हैं।
४०. 'अथवा' ये सपं ही आदित्य हैं। अव सोम का स्वरूप
४१. नक्षत्रों का स्वामी चन्द्रमा सोम कहलाता है।
४२. चन्द्रमा ही सोम है।
४३. वृत्र ही सोम था।
४४. पितृलोक का नाम सोम है।
४५. रात्रि का नाम सोम है।
४६. यह वटवृक्ष भी तिरोहित रूप में सोम है ।.
४७. दही का नाम सोम है।
४८. रस का नाम सोम है।
४६. सोम "चन्द्र मा" राजा सब नक्षत्रों को प्राप्त करता है ।
५०. सोम अन्तरिक्ष देवता है।
५१. सोम प्रोषधियों का अधिराजा है। .
५२. पानी में दीखने वाला सूर्य ही वरुण है।
५३. वरुण का स्थान जल है।।
५४. रात्रि का नाम वरुण है।
५५. मित्रावरुण का प्रिय स्थान द्यावापृथिवी है ।
५६. अथवा यह पृथिवी लोक मित्र है और यह धुलोक वरुण है।
ऊपर कहे हुए कतिपय वेदवाक्यों का सङ्गति-प्रदर्शन दिखाया जाता है जिससे कि अन्य वाक्यों के सङ्गतिकरण का मार्ग प्रशस्त हो सके।
देखिये अष्टम वाक्य:-जिसका वायू सम-चारी है, उसी का शरीर बलिष्ठ है । वायु के विषम होने पर बलवान् का शरीर भी निर्बल हो जाता है।
देखो नवम वाक्य:--जिसका वायु सम है, वही 'जातानि वेदा:--अर्थात् उत्पना पदार्थों को जान सकता है । समवायु वाले को ज्ञान भी स्थिर रहता है।
इसी प्रकार देखो सत्ताईसवां वाक्य:--जिसका पित्त समचारी है वह तपसे दुर्गम को भी पार कर सकता है और दुर्जेय का भी ज्ञान कर सकता है।
___ इस प्रकार विलोम प्रक्रिया-दूतघरा द्वारा रोगी की नाडी देख कर यह बतलामा सकता है कि तुम अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकोगे या बीच में ही अटक जागि।
इसी प्रकार उन्तीसवें वाक्य का अनुसन्धान करते हुए नाडी देखकर कहा जा सकता कि जिसकी पित्तघरा जितनी बलवती है. वह उतना ही अधिक अन्न पचा सकता है।
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प्रथमोऽध्यायः
भवन्ति चात्र
'द्वाविमौ वातौ वातः' 'पा वात वाह षजम्'। एताभ्यां वातदोषस्य मूलमात्रं निरूपितम् ॥१॥ 'सुपर्णो जातः' इत्यस्मात्–'उपद्यामुपवेतसात् ।। 'उपज्मन्नुपवेतसात्' पित्तमूलं निदर्शितम् ॥२॥ 'पित्तं' "पित्तेन' नामान्तौ' यजुषात्र प्रदर्शितौ । 'अस्थिस्रंसं परःलंसं' श्लेष्ममूलार्थमुद्धृतः ॥३॥
अभ्रजा' 'वातजा' 'शुष्म'-पदैर्दोषत्रयस्य च । ब्रह्मस्थ 'मुञ्च शीर्षक्त्या श्लेष्मवातानलान् पृथक् ।।४।। दोषस्य सप्त-धातूनां 'शतधारेति' मन्त्रतः । प्राकृता विकृता दोषा यान्ति घ्नन्ति वपुर्यतः ॥५॥ "त्रि! अश्विना'-मन्त्रे त्रिधातुपदमुच्चरन् ।
वात-पित्त-श्लेष्म-धातु-प्रशमं प्राह सायणः ॥६॥ पचासवें वाक्य का अनुसन्धान करने से मालूम होता है कि जिसकी कफ-नाडी सम, अर्थात विशुद्ध रूप से चल रही हो, उस में गम्भीरता, उदारता एवं शान्तिं आदि गुण अधिक होंगे। - ऐसे ही बावनवें वाक्य द्वारा यह माना जाता है कि जब कफ, कुपित होकर वायू के मार्ग को अवरुद्ध कर देता है, तब वह आकाश में न जाकर विषमावस्था को प्राप्त कर वमन. ग्रहणी या अग्निमान्द्य आदि को उत्पन्न करता है।
इस प्रकार सम्यक् रूप से जामा हुअा तथा दूत-धरा द्वारा प्रयोगों में लाया हा यह नाड़ीविज्ञान, वैद्य को यशस्वी, धनी एवं सफल बना सकता है।
प्रथम अध्याय का संक्षेप 'द्वाविमौ वातौ वातः' और 'प्रावात बाहि भेषजं' इन दोनों मन्त्रों द्वारा वेदों में वायु का दिग्दर्शन है ॥१॥
'सुपर्णो जातः' 'उपद्यामुप' एवं 'उपज्मन्न पवेतसे' इन मन्त्रों द्वारा पित्त का मूल स्थापन है ॥२॥
यजुर्वेद में 'पित्तम्' पद द्वितीयान्त तथा 'पित्तेन' यह तृतीयान्त पद प्रदर्शित किया गया है, 'अस्थिस्र सम्' इस मन्त्र से कफ का प्रदर्शन कराया गया है ॥३॥
' अथर्ववेद के एक ही मन्त्र में आये 'अभ्रजा 'वातजा' तथा 'शुष्म' इन पदों से क्रमशः कफ, वात और पित्त-तीनी का मूल प्रदर्शित किया है ॥४॥
शतधार इस मन्त्र के द्वारों सप्तधातुओं के निर्माण कर्ता सप्त दोषों का प्रकृतावस्था में शरीर को पुष्ट करने तथा विकृत अवस्था . में शरीर को दूषित करने का मूल बतलाया गया है ॥५॥
ऋग्वेद के "त्रिों आश्विनौ" इस मन्त्र के "त्रिधातु' पद का सायणाचार्य द्वारा किया गया वात पित्त-कफ रूप-अर्थ प्रदर्शित किया गया है ॥६॥
- १. सुबन्तौ। २. अथर्वस्थात् ।
नाडीतत्त्वदर्शने
Jauuessue 4M pouueos 'या वः शम्म'ति मन्त्रस्थ--'त्रिधातूनि' पदं स्मरन् । 'वात-पित्त-कफा येषु दयानन्दर्षिभाषितम् ॥७॥ पासीद् भारतकालेऽपि सर्वमान्यमतं त्वदः ।। शरीरस्य यथा राजन् ! वातपित्तकफैस्त्रिभिः ॥८॥ 'द्रप्सश्चस्कन्द --मन्त्रेण शरीरोत्पत्ति-वर्णनम् ।। 'द्वा.सुपर्णे'ति जीवस्य प्रवृत्तिमत्त्व-दर्शनम् ॥६॥ 'अयं मे हस्त' इत्यस्मात् स्पर्शज्ञानमुदाहृतम् । 'हस्ताभ्यां दशशाखाभ्यां मयं स्पर्श धरागते ॥१०॥ स्पर्शनाद् वेदनाज्ञानं त्रिदोषो देवताश्रितः ।। विश्वव्यापकता चास्य ब्राह्मणादिभिराहिता ॥११॥ त्रिदोषवेदमूलीयोऽध्यायः पूर्ति समन्वगात् ॥ पुनःशोधनमाश्रित्य स्थानेऽमृतसरोऽभिधे । वाणशून्याभ्रनेत्राब्दे श्रावणार्के दिगंशगे ॥
इति त्रिदोष-वेदमूलीय प्रथमोऽध्यायः ।
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"या वः शर्म" इस मन्त्र में पठित "त्रिधातूनि" पद का अर्थ ऋषि दयानन्द जी के मतानुसार वात, पित्त, कफ या लोहा, सोना, चांदी किया गया है--यह दिखलाया गया है ॥७॥
महाभारत के 'अभिमन्योः' इस श्लोक द्वारा तत्कालीन-चिकित्सापद्धति में वात, पित्त और कफ को चिकित्सा का मूल आधार बताया गया है ।।८॥
"द्रप्सश्चस्कन्द" इस मन्त्र के द्वारा शरीरोत्पत्ति का वर्णन तथा "द्वा सुपर्णा" इस मन्त्र के द्वारा जीव की प्रवृत्तिमत्ता प्रदर्शित की गयी है ॥६॥
. "अयं मे हस्त:" तथा "हस्ताभ्यां" इन दोनों मन्त्रों से नाडी-स्पर्श में विनियोग की व्यवस्था बतायी गयी है ॥१०॥
चरक के "स्पर्शनाद्वेदना" इस वचन से स्पर्शविज्ञान का समर्थन किया गया है । काश्यप संहिता के वचनानुसार वात, पित्त और कफ के दो-दो देवता तथा ब्राह्मण आदि ग्रन्थों से उसका विश्वव्यापकता निर्दिष्ट की है। इस प्रकार आर्ष-आम्नायके द्वारा उक्त विषयों का प्रदर्शन किया गया है कि वैद्य की बुद्धि वैदिक-याम्नाय की अनुगामिनी होकर चतुर्वर्ग को प्राप्त कर सके ॥११॥
__ यह 'त्रिदोष-वेदमूलीय' नाम का प्रथम अध्याय' पूरा हुआ । सम्वत् २००५ (अगस्त १९४८) में अमृतसर में इस का पुन: संशोधन किया गया ।
वण
प्रथम अध्याय समाप्त ।